आज विश्व कविता दिवस है ….साहित्य की पहली विधा है – कविता …. भारतीय साहित्य की बात करें तो पहला ग्रन्थ है रामायण जिसके रचयिता है वाल्मिकी और दूसरा ग्रन्थ है महाभारत जिसके रचयिता व्यास है लेकिन इनका रचनाकाल पता नहीं । इतना कहा जा सकता है कि इन ग्रन्थों की भाषा वेदों की भाषा संस्कृत है और लिपि देवनागरी। इसके बाद कितना समय बीता कहा नहीं जा सकता फिर शुरू हुआ हमारा समय यानि पहली सदी शुरू हुई। दूसरी या तीसरी शताब्दी में लिखा गया साहित्य उपलब्ध है। पहले कवि है – महाकवि कालिदास
अब साहित्य में दूसरी विधा शुरू हुई – नाटक… लेकिन नाटकों में भी संवाद पद्य में ही रहे। कालिदास की पहली रचना नाटक है – मालविकाग्निमित्रम …. जो शासक अग्निमित्र पर केन्द्रित है। दूसरी रचना है – अभिज्ञान शाकुन्तलम जो सबसे अधिक लोकप्रिय है। काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से मेघदूत सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है जो एक खण्ड काव्य है। इन रचनाओं की भाषा संस्कृत है और लिपि देवनागरी। आगे संस्कृत में साहित्यकार हुए जिनके ग्रन्थ भी उपलब्ध है।
समय के साथ समाज में परिवर्तन हुए और साहित्य भी बदला। अब शक्ति के रूप में ईश्वर को माना जाने लगा, ध्यान का महत्व बढ़ा, योग, सिद्धि जैसी बातें प्रचलित हुई और जो साहित्य रचा गया वो एक तरह से संत साहित्य ही रहा और जनता से जुङने के लिए जनता की भाषा का प्रयोग होने लगा यानि संस्कृत ही न हो कर पाली और प्राकृत भाषाओं में भी लिखा जाने लगा। यहां बौद्ध और जैन धर्मों का भी प्रभाव बढ़ने लगा। ये उपदेशात्मक साहित्य बहुत कम उपलब्ध है। लगभग दसवीं शताब्दी तक यही स्थिति रही। फिर कवियों ने पौराणिक, सामाजिक आधार छोङ अपने राजाओं को अपनी रचनाओं का केन्द्र बनाया। दूसरी ओर भाषा भी परिवर्तित होने लगी। स्थानीय बोलियां या भाषाएं भी अब साहित्य में प्रयोग होने होने लगी। इस समय यानि ग्यारहवीं सदी में पृथ्वीराज चौहान का राज था। राजकवि थे चन्द्र बरदाई। दिल्ली और कुछ स्थानों पर अपभ्रंश भाषा का प्रभाव था जिसे अवहट्ट भी कहते है। चन्द्र बरदाई ने पृथ्वीराज चौहान के जीवन पर एक ग्रन्थ लिखा – पृथ्वीराज रासो …. जिसमें संस्कृत साहित्य की तरह दोहे, चौपाए है, लिपि देवनागरी है लेकिन भाषा अवहट्ट है जो इस स्थान की हिन्दी का प्रारंभिक रूप है –
“‘बज्जिय घोर निसाँन रांन चौहान चहुँ दिसि। सकल सूर सामंत समर बल जंत्र मंत्र तिसि।।”
यहां हम बता दे कि विभिन्न स्थानों पर हिन्दी का विकास प्राकृत और स्थानीय बोलियों के साथ विभिन्न रूपों में हुआ। इस तरह हिन्दी का पहला महाकाव्य सामने आया – पृथ्वीराज रासो …. और पहले कवि बने चन्द्र बरदाई। यह महाकाव्य विभिन्न छोटे-बङे संस्करणों में उपलब्ध है और मूल प्रामाणिक ग्रन्य़ की पहचान कठिन है।
राजदरबारी कवियों का अपने आश्रयदाता राजाओं के लिए साहित्य रचा जाना जारी रहा। इस तरह इस दौर को वीरगाथा काल या हिन्दी साहित्य का आदिकाल कहा गया। अगली सदी यानि बारहवीं सदी में अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में कवि हुए – अमीर खुसरो …इस समय मेरठ के आस-पास खङी बोली लोकप्रिय हो रही थी। अमीर खुसरो ने खङी बोली में भी साहित्य रचा, यह फुटकर साहित्य रहा जो पहेलियों पदों के रूप में मिलता है –
“छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके”
इस तरह अमीर खुसरो खङी बोली हिन्दी के पहले कवि माने गए। अब परिस्थितियां कुछ बदलने लगी। युद्ध, संघर्ष से लोग परेशान होने लगे थे। ऐसे में भक्ति की ओर झुकाव होने लगा। मिथिला प्रदेश में स्थानीय बोली मैथिली में विद्यापति ने कृष्ण भक्ति के पद रचे –
“देखदेख राधा-रूप अपार।, अपुरुष के बिहि आनि मिला, ओल।खिति-बल लावनि-सार ।
अंगहि अंग अनंग मुरछायत, हेरए पडए अधीर।”
इन पदों की लोकप्रियता से मैथिल कोकिल कहलाए …. आगे इस तरह का साहित्य बढ़ने लगा और इस दौर का साहित्य कहलाया – भक्ति काल
अब साहित्यकार समाज के बीच से ही निकलने लगे थे। बड़ी बात यह रही कि अपने अनुभव को शब्दो में ढाला जाने लगा और अधिकाँश कवि शिक्षित भी नही है। इस तरह कविता यथार्थता बताने लगी और आवश्यकता के अनुसार उपदेश भी देने लगी। इन्ही बातों का संकलन काव्य कहलाया। वास्तव में ये साहित्यकार न हो कर समाज जागरूकता में लगे या अपने आप को ईश्वर से जोङने वाले रहे जिन्हें संत भी कहा जाने लगा। यह तेरहवी सदी का समय रहा। कई तरह के अनुभवों के आधार पर भक्ति काव्य दो रूपो में सामने आया। कुछ संतों ने ईश्वर को निराकार, निर्गुण माना और ईश्वर को पाने के दो रास्ते बताए – पहले रास्ते के संतो ने ज्ञान को महत्त्व दिया जिनमे प्रमुख है – कबीर
” पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ताते ये चक्की भली पीस खाए संसार “
संतो की इस वाणी को संकलित किया गया जो काव्य साहित्य बना जिसकी भाषा जनता की, बोलचाल की भाषा रही। ये साहित्य अधिकतर दोहों के रूप में मिलता है। दूसरे रास्ते के संतों ने प्रेम को महत्त्व दिया जो ईश्वर से प्रेम कर उसे पाना चाहते है यह अलौकिक प्रेम है. इसमे अधिकाँश सूफी हुए जिनमे प्रमुख है मलिक मोहम्मद जायसी। अलौकिक प्रेम को समझाने के लिए सांसारिक प्रेम का सहारा लिया। अलाउद्दीन खिलजी और पद्मिनी प्रकरण को ध्यान में रखते हुए पद्मिनी और राजा रत्नसेन की प्रेम गाथा को लेकर एक ग्रन्थ रचा – पद्मावत …. जो दूसरा महाकाव्य है। पद्मिनी को पाने के लिए राजा रत्नसेन कठिन प्रयत्न करते है और इसमें हीरामन सुग्गा ( तोता ) सहायता करता है। यहां पद्मिनी ईश्वर का प्रतीक है और हीरामन गुरू है जो रत्नसेन को मार्ग दिखाता है। यह महाकाव्य अवधि बोली में लिखा गया जिसके जानकार उस समय अधिक थे।
इस समय ऐसा साहित्य भी रचा गया जिसमें साकार ईश्वर की भक्ति की गई। दो रूपों में ईश्वर को माना गया। राम रूप में जिसमें प्रमुख कवि है – तुतसीदास …. जिनका प्रमुख ग्रन्थ है रामचरित मानस …. यह तीसरा महाकाव्य है। इसकी भाषा भी अवधि है। दूसरा रूप है – कृष्ण ….. प्रमुख कवि है – सूरदास, मीरा …. जिन्होने अपनी बोली बृज में कृष्ण भक्ति के पद रचे। वास्तव में इन कवियों ने साहित्य नहीं रचा बल्कि ईश्वर के प्रति अपनी आस्था विभिन्न रूपों में व्यक्त की जिनका शाब्दिक संकलन साहित्य कहलाया। इस तरह कविता जनता के निकट रही तभी तो अवधि और बृज बोलियों को भाषा का दर्जा मिला। यह स्थिति सोलहवीं शताब्दी तक रही।
सत्रहवीं सदी के आरंभ से कवियों को राजदरबार में आश्रय मिलने लगा। इस तरह वातावरण बदलने से साहित्य भी बदल। अब कविता रचना अपना पाण्डित्य प्रदर्शन हो गया। बृज बोली में कविता लिखी जाने लगी और कविता को छंद अलंकारो से सजाया जाने लगा। कविता की रीति बनी तभी इस दौर को काव्य का रीति काल कहा गया। काव्य में अब भी दोहे, मुक्तक लिखे जाते रहे। कविता दरबार में होने से विलासिता के रंग में आई। श्रृंगार रस का महत्त्व बढ़ गया। नायिका के सौन्दर्य पर अधिकाँश काव्य रचा जाने लगा। कई बार यह वर्णन बढ़-चढ़ कर रहा चूंकि राजदरबार में युद्ध की भी चर्चा होती थी इसीसे काव्य में श्रृंगार की झन्कार और तलवार की टंकार दोनों सुनाई देने लगी। इस दौर के प्रमुख कवि है बिहारी, केशव
रीतिसिद्ध उन कवियों को कहा गया है, जिनका काव्य ,काव्य के शास्त्रीय ज्ञान से तो आबद्ध था, लेकिन वे लक्षणों के चक्कर में नहीं पड़े । लेकिन इन्हें काव्य-शास्त्र का पूरा ज्ञान था । इनके काव्य पर काव्यशास्त्रीय छाप स्पष्ट थी । रीतिसिद्ध कवियों में सर्वप्रथम जिस कवि का नाम लिया जाता है, वह है – बिहारी । बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । बिहारी की एक ही रचना मिलती है, …. बिहारी का वियोग, वर्णन बड़ा अतिशयोक्ति पूर्ण है। यही कारण है कि उसमें स्वाभाविकता नहीं है, विरह में व्याकुल नायिका की दुर्बलता का चित्रण करते हुए उसे घड़ी के पेंडुलम जैसा बना दिया गया है –
इति आवत चली जात उत, चली, छसातक हाथ। चढी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ॥
गणित संबंधी तथ्य से परिपूर्ण यह दोहा देखिए –
कहत सवै वेदीं दिये आंगु दस गुनो होतु। तिय लिलार बेंदी दियैं अगिनतु बढत उदोतु।।
नायक और नायिका के प्रेम को दर्शाने वाला यह दोहा भी प्रसिद्ध है –
कहत ,नटत,रीझत ,खीझत ,मिळत ,खिलत ,लजियात । भरे भौन में करत है,नैनन ही सों बात ।
अठारहवी सदी की शुरूवात में ही ब्रिटिश कंपनी भारत में व्यापार करने आई और धीरे शासन करने लगी। अब समाज को जागरूक करने के लिए साहित्य का भी सहारा लेना पड़ा। साहित्य द्वारा जनता तक सन्देश पहुंचाने के लिए गद्य में साहित्य रचा जाने लगा यानि कविता का साहित्य में एकाधिकार समाप्त हो गया , इस बदलते साहित्य की समयावधि कहलाई – आधुनिक काल …. अब कविता के विषय भी बदले। प्रमुख रूप से उभरे – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र … जिन्होंने हिन्दी में नाटको की शुरूवात की और बृज बोली में कविता लिखने लगे –
‘ हाय हाय भारत दुर्दशा देखी न जाय ‘
के साथ हिंदी भाषा के लिए अनमोल पंक्तियाँ दी –
‘ निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ‘
खड़ी बोली में कविता लिखना भी यहीं से आरम्भ हुआ। इस तरह यह पुनर्जागरण काल रहा इसे भारतेन्दु युग कहा गया। आगे इतिहास पुराण से चरित्र और घटनाएं लेकर काव्य रचा जाने लगा जिनके मूल में सीधे या परोक्ष रूप से देश भक्ति ही रही. इस समय हिंदी में दो महाकाव्य रचे गए – मैथिलीशरण गुप्त का साकेत … जो लक्ष्मण पत्नी उर्मिला की विरह गाथा के साथ नारी के धैर्य और त्याग को दर्शाता रहा। रामधारी सिंह दिनकर की उर्वशी …. जिसमे पुरूरवा के शौर्य से भारत की वीर भावना दर्शायी गई। इस दौर में सोहनलाल द्विवेदी जी की देशभक्ति रचनाएं महत्वपूर्ण रही। यह दौर महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम से द्विवेदी युग कहालाया। हालांकि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने गद्य में विभिन्न विधाओं में साहित्य रचा और इन्ही सेवाओं के कारण पहले हिन्दी साहित्यकार रहे जिन्हें आचार्य की पदवी मिली। उन्नीसवीं शताब्दी में तीस के दशक से कविता का रूप बदल। इस समय दो महाकाव्य रचे गए – जयशंकर प्रसाद का कामायनी … जो बहुत लोकप्रिय है। और सुमित्रानंद पन्त का लोकायतन …. जिसे पन्त जी की अन्य रचनाओं जैसी लोकप्रियता नही मिली। इस तरह कामायनी हिंदी का अंतिम लोकप्रिय महाकाव्य है।
तीस के दशक में छायावाद अपने चरम पर रहा लेकिन 1936 से काव्य में छायावादी प्रवृतियां कम होने लगी. जिसका कारण बदलता परिवेश रहा. स्वतंत्रता के लिए संघर्ष बढ़ने लगा था, ऐसे में कवियों के लिए जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों के साथ प्रकृति चित्रण सहज नही रहा. छायावादी कवियों की रचनाओं में परिवर्तन दिखाई देने लगा. छायावाद के प्रमुख चार स्तम्भों में से एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने “वह तोड़ती पत्थर” की रचना की जिसमे छायावादी लक्षण नही थे, जीवन का संघर्ष था और उस संघर्ष के लिए शब्दावली भी कोमल न रही. यह कविता में एक नया प्रयोग था. इसी तरह निराला जी आगे बढ़ते गए और अपने प्रयोगों से प्रयोगवादी कवि कहलाए. साथ ही छायावाद के दूसरे प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत स्वतंत्रता के संघर्ष से प्रभावित हो अरविंद के दर्शन को मानने लगे. यही से उनके काव्य में प्रकृति के स्थान पर समाज, जीवन और दर्शन दिखाई देने लगा और इस प्रगति से पंत जी प्रगतिवादी कवि भी कहलाए. इस तरह प्रगतिवाद और प्रयोगवाद कविता में साथ-साथ चला. वास्तव में नई काव्य प्रवृतियों का आरम्भ 1932 में हरिवंश राय बच्चन की रचना “तेरी हार” और 1934 में नरेंद्र शर्मा की रचना शूल फूल से हुआ.
कविता में नए प्रयोग होने लगे और समाज को भी काव्य में स्थान मिलने लगा जिससे इन रचनाओं में प्रगतिवादी लक्षण दिखाई दिए साथ ही प्रगतिवादी रचनाओं में अपने भाव अभिव्यक्त करने के लिए प्रयोग किए जाने लगे जिससे प्रगतिवादी और प्रयोगवादी रचनाएँ निकट आई और इन वादो के कुछ-कुछ लक्षण लेकर जो कविता बानी वह “नई कविता” कहलाई.नई कविता के आरम्भ से ही इसके समानांतर अस्सी के दशक तक विभिन्न वर्गों में भिन्न-भिन्न शीर्षकों से काव्य धारा बहती रही जो इस तरह है –
सनातन सूर्योदयी कविता – इसकी घोषणा वीरेन्द्र कुमार जैन ने ” भारती ” नामक पत्रिका के मार्च 1962 के अंक में की. किन्तु इसी पत्रिका के फरवरी 1965 के अंक में नूतन कविता का स्वर सुनाई दिया.
युयुत्सवादी कविता – इसके प्रवर्तक श्री शलभ, श्री राम सिंह है. इसका सम्बन्ध ” युयुत्सा ” नामक पत्रिका से रहा. सबसे पहले यह ” रूपमभरा ” पत्रिका के 1966 के अंक में प्रस्तुत की गई.
अस्वीकृत कविता – 1966 में श्री राम शुक्ल ने इसे स्वर दिया. इसकी परिभाषा दी – सत्य को सत्य न कह पाने की विषमता कभी अवरोध तोड़कर बाह निकलती है और तभी जन्म होता है अस्वीकृत कविता का.
अकविता – इसका आरम्भ डॉ श्याम परमार ने किया। इसका समय 1965 व माध्यम ” अकविल्प ‘ नामक छोटी सी पत्रिाका है.
बीट कविता – अमरीकी बीटनीक के प्रभाव से डॉ प्रभाकर माचवे, बंगला साहित्य की भूखी पीढ़ी की कविता के प्रभाव से राजकमल चौधरी और निम्न वर्ग से प्रभावित हो त्रिलोचन और शमशेर बहादुर सिंह ने बीट कविता से अपने आप को जोड़ा. ” कृति ” और ” अभिव्यक्ति ” नामक पत्रिकाओं में अपनी धारण को घोषित भी किया.
ताज़ी कविता – नई कविता में नयापन न होने की बात कह कर लक्ष्मी कान्त वर्मा ने ताज़ी कविता का आंदोलन आरम्भ किया जो अधिक समय न चला.
प्रतिबद्ध कविता – इसके प्रवर्तक डॉ परमानंद श्रीवास्तव रहे.
सहज कविता – इसके प्रवर्तक डॉ रविन्द्र भ्रमर है तथा समर्थक अज्ञेय और इंद्रनाथ मदान है. इसका आरम्भ 1967 में हुआ. 1968 में ” सहज कविता संग्रह ” प्रकाशित हुआ.
नवगीत – इसका आरम्भ 1958 से है. यह समानांतर चल रहा है और स्थापित हो गया है.
इस तरह अस्सी के दशक तक मुख्य रूप से दो विधाएँ रही – नई कविता और नवगीत … और यही दोनों विधाएँ आज भी जारी है. वैसे सत्तर के दशक से ही कोई नया समूह, कोई नई दिशा काव्य जगत में नज़र नही आई.