पिछली एक पोस्ट में उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य की चर्चा करते हुए छायावादी काव्य में प्रागैतिहासिक, महाभारत, रामायण, बौद्ध काल के चरित्रों, घटनाओं की हमने चर्चा की थी। अब चर्चा करेंगें भारतीय इतिहास के मध्य युग यानि राजपूत, मुग़ल, मराठों के इतिहास की …. यानि बीच के समय का लम्बा इतिहास छायावादी काव्य में नहीं मिलता जबकि गुप्त साम्राज्य प्रसाद जी के नाटकों का विषय है। इसका कारण काव्य के लिए कवियों को वो शौर्य चाहिए था जो प्रताप और शिवाजी में है और सामाजिकता में नारी के लिए आदर्श रूप राजपूत वंश की नारियों में खोजा जा रहा था। अब चर्चा करते है इस इतिहास के कविता में प्रयोग की।
राजपूत युग साहित्य और इतिहास दोनों ही दृष्टियों से जनमानस के लिए उपयोगी रहा। प्राचीन काल से चली आ रही वीरता को इन राजाओं ने अपने शौर्य से गौरवान्वित किया। केवल पुरूष ही नहीं नारियों ने भी शौर्य प्रदर्शन किया, अपने परिजनों विशेषकर पुरूषों को युद्ध के लिए प्रोत्साहित करना व अपनी रक्षा हेतु जीवित चिता में प्रवेश करना, इतिहास की अमर गाथाएं है। जितना राजपूतों का शौर्य उतनी ही मुग़लों की कला सौंदर्य प्रियता ने साहित्य के लिए रोचक सामग्री उपलब्ध कराई। भाव पक्ष के अतिरिक्त कला पक्ष भी छायावाद से अछूता नहीं रहा, राजाओं ने वीर रस, ओजपूर्ण शब्द, सौन्दर्यमयी रानियों ने श्रृंगार रस व कोमल कांत पदावली तथा समाज में प्रचलित जौहर व्रत ने करूण रस का काव्य में संचार किया। इतिहास का प्रयोग कर रोचकता के साथ साहित्य का जनमानस को संदेश देने के लिए उपयोग करना ही कवियों का लक्ष्य रहा।
कवि प्रसाद ने प्रलय की छाया नामक तम्बी कविता में पद्मिनी और गुजरात की रानी कमला के माध्यम से नारी के रूप सौन्दर्य की तुलना मे गुण सौन्दर्य को महत्व दिया विशेष रूप से साहसिक गुणों को।
प्रसाद जी की एक और कविता है – महाराणा प्रताप – जिसमें अकबर और महाराणा प्रताप की संधि के ऐतिहासिक तथ्य को चित्रित करते हुए प्रताप के शौर्य का बखान किया –
तुम परिचित नहीं कुलमानी, दृढ़, वीर, महान प्रताप से,
भला करेगा संधि कभी वह यवन से,
कई हो चुके है प्रस्ताव मिलाप के,पर
प्रताप निज दृढ़ता ही पर अटल है
काव्य संग्रह लहर में एक और कविता प्रताप से संबंधित संकलित है – पेशोला की प्रतिध्वनि – जिसमें पेशोला झील की शांत लहरों से तुलना करते हुए प्रसाद जी कहते है – कौन लेगा यह भार
इतिहास में महाराणा प्रताप ने स्वयं अपने पुत्रों की अयोग्यता को स्वीकारा है। ऐसे में चिन्ता है कि प्रताप के बाद मेवाङ का भार कौन लेगा। परोक्ष रूप से प्रसाद जी कहते है कि मातृ भूमि का भार लेने किसी प्रतापी को आगे आना है।
केवल प्रतापी राजा ही नहीं उनके सेवकों के बहाने भी वीरता और स्वामी भक्ति की चर्चा की गई। महाराणा प्रताप के घोङे चेतक पर इसी उद्येश्य से सुमित्राानन्दन पंत ने अपने संग्रह वीणा में एक संक्षिप्त सी कविता लिखी – चेतक … जिसमें रणक्षेत्र में स्वामी को बचाते लहुलुहान होकर चेतक का वीर गति को पाना चित्रित है जो देश में वीरता की भावना को और बढ़ावा देता है।
रामकुमार वर्मा ने चित्तौङ की चिता में चित्तौङ के राजा संग्राम सिंह की बाबर से हार के बाद अवसर पा कर गुजरात के शाह बहादुर शाह के आक्रमण पर संग्राम सिंह की रानी कर्णवती का हुमायू को राखी भेज सहायता प्राप्त करना लेकिन हुमायूं के पहुंचने से पहले ही मुग़ल सेना के आने पर कर्णवती का जौहर चित्रित किया –
मिटा नगरी का सब श्रृंगार, नारियों ने पति भेजे समर,
किया फिर अपना जौहर व्रत, यहीं था यवनों को उपहार
मुग़ल काल से भी एक कविता वर्मा जी ने लिखी – नूरजहां की कब्र पर … इसमें भी नारी शक्ति है। नूरजहां का शासकीय रूप उभर कर आया जैसा कि इतिहास कहता है कि सिंहासन के पीछे वास्तविक शक्ति नूरजहां की थी। कुछ सिक्कों पर नूरजहां का नाम भी अंकित था और कुछ शाही फरमान भी उनके नाम से जारी हुए। जहांगीर से अधिक शक्तिशाली नूरजहां के लिए कवि ने लिखा –
धूल में मिले हुए कंकाल, तुम्हारे संकेतों के साथ, नाचता था साम्राज्य विशाल
नूरजहाँ के बाद उत्तराधिकारी उसका पुत्र शाहजहां बना. लेकिन शाहजहां के चार पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए बहुत संघर्ष हुआ – दारा, शुजा, मुराद, औरंगज़ेब …. इसी पर आधारित है सुमित्रानन्दन पंत की युगपथ में संग्रहित कविता – शुजा … सत्ता और सिंहासन की आकांक्षााओं ने इतिहास को रक्तारक्त कर दिया, यही इस रचना का उद्येश्य है।
इतिहास के गर्भ में सुप्त जातीय स्वाभिमान और स्वार्थी भावनाओं को समाज के सम्मुख रख कवियों ने राष्ट्रीय एकता के संकेत दिए। छायावादी कवि बार-बार आपसी फूट के प्रति जनता को सावधान करता रहा। छायावादी कवियों को अपने इन विचारों को स्पष्ट करने के लिए इतिहास का यह समय भी उपयुक्त लगा – मराठा युग
मराठा काल में भारत में देशी विदेशी सभी शक्तियां कार्यरत थी। राजपूत तथा मुग़लों के साथ अंग्रेज़ भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर रहे थे। सभी भारत पर अपना एकाधिकार चाहते थे किन्तु उनमें पारस्परिक फूट भी थी। इसी कारण इस युग के इतिहास का प्रयोग कर कवियों ने एक ओर तो वीरता का प्रदर्शन किया तो दूसरी ओर आपसी फूट का। प्रसाद जी का आख्यानक काव्य – प्रेम राज्य – तालीकोट के युद्ध की पृष्ठभूमि में है। इसमें मनु पुत्र इक्ष्वाकु, चन्द्रवंशी दुष्यन्त तथा उनके पुत्र भरत जैसे अनुपम रत्नों की वीरता का बखान भी है। इसमें सेनापति के धोखे से विजयनगर की हार और यवनों की जीत का उल्लेख है।
अविश्वास के अलावा आपसी फूट से तत्कालीन जनता को सावधान करने के लिए निराला जी ने भी एक कविता लिखी – छत्रपति शिवाजी का पत्र – मुग़लों के बादशाह औरंगज़ेब की नीति थी कि दक्षिण की रियासतों पर आक्रमण कर उनकी नींव को कमज़ोर कर दे साथ ही राजपूतों को आपस में भिङा कर उनकी शक्ति कम करना चाहता था जिससे अवसर पा कर उन्हें अपने अधीन कर सके। इसी के अंतर्गत शिवाजी पर जयसिंह आक्रमण करना चाहता था लेकिन शिवाजी जयसिंह से समझौता कर आपसी फूट को रोकना चाहते थे, इसी से संबंधित एक पत्र शिवाजी ने जयसिंह को लिखा जिसे कवि ने अपनी रचना का आधार बनाया।
इस समय सिक्ख अपने चरमोत्कर्ष पर थे। गुरू नानक की वाणी का प्रचार हो रहा था। इन्हीं की शिष्य परम्परा में गुरू गोविन्द सिंह जी हुए जिनके पुत्रों से संबंधित सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना को आधार बना कर कवि प्रसाद ने – वीर बालक – नामक काव्य की रचना की। 1761 में मुग़ल व सिक्खों में युद्ध हुआ। सिक्खों की सेना से बादशाही सेना अधिक शक्तिशाली थी इसीसे गुरूजी का कुटुम्ब बिखर गया। दोनों पुत्र जोरावर सिंह और फतह सिंह को लेकर उनकी माता दूसरे मार्ग चली गई। उनके साथी के विश्वासघात से दोनों बालक बादशाह के दरबार में पहुँचे। जिस शूरवीरता से दोनों बालकों ने विद्रोह किया और अंत में मौत को गले लगाया यही स्वाभिमान की भावना प्रसाद जी ने रेखांकित की जो उस दौर की मांग थी।
इस वीरता और स्वाभिमान के साथ जो द्वेष की भावना है वही आपसी फूट के रूप में उभर कर विदेशियों को शासन करने का खुला निमंत्रण दे रही थी। इसी को आधार बना कर एक और लम्बी कविता प्रसाद जी ने रची – शेरसिंह का शस्त्र समर्पण … अंग्रेज़ो ने सिंध पर अधिकार कर लिया था लेकिन पंजाब के शेर राजा रणजीत सिंह के कारण पंजाब शेष रह गया था। राजा रणजीत सिंह की मृत्यु 1839 में हुई। इस कविता में 1843 के पंजाब का वर्णन है जब अंग्रेज़ों ने सेनापति लालसिंह के माध्यम से षडयंत्र रचा, जिससे सिक्खों ने लालसिंह के सम्मुख शस्त्र समर्पण किया और शेरसिह की मृत्यु हुई। इसके बाद कवि ने सतलज तट के उस युद्ध का वर्णन किया जिसके फलस्वरूप पंजाब पर अंग्रेज़ों का आधिपत्य हो गया। इस प्रभुता का कारण आपसी मतभेद है –
छल में विलीन बल, बल में विषाद था,
विकल विलास का,
भवन के हाथों से स्वतंत्रता को छीन कर,
खेलता था यौवन विलासी मत पंचनद
इसके बाद 1857 की क्रान्ति में उभरी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की वीरता का उल्लेख करती कविता रची सुभद्राकुमारी चौहान ने –
लेफ्टिनेंट नैकर आ पहुँचा आगे बढ़ा जवानी में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वन्द्व आसमानों में,
ज़ख्मी होकर वॉकर भागा उसे अजब हैरानी थी
इसके बाद जो भी परिस्थितियां रही वो छायावाद की तत्कालीन परिस्थितियां रही इसीलिए इस तरह की रचनाएं छायावाद की राष्ट्रीय चेतना की रचनाएं कहलाती है। उस समय के लगभग हर कवि ने – बापू – पर रचना लिखी, इसके अलावा उद्बोधन गीत भी लिखे गए
हिमाद्रि तृंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती
सुभद्राक्मारी चौहान की रचना – जलियांवाला बाग़ में वसन्त – निराला ने लिखा –
प्रिय स्वतंत्र नव अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे वीणा वादिनी वर दे
इस तरह छायावाद में प्रेम और सौन्दर्य तथा प्रकृति के अलावा एक समानान्तर काव्य धारा भी रही जो तत्कालीन स्वाधीनता के संघर्ष की परिस्थितियों में जनसाधारण को जाग्रत करती रही।