आज ख्यात साहित्यकार अज्ञेय जी की पुण्यतिथि है
अज्ञेय जी ने परिवर्तन के दौर से गुज़र रहे हिन्दी साहित्य को अपने विविध आयामी व्यक्तित्व से सँभाला। साहित्य में तीस के दशक के मध्य में परिवर्तन स्पष्ट होने लगे थे. कविता में छायावादी लक्षण गुम हो रहे थे जिसका कारण था स्वाधीनता के लिए संघर्ष का उग्र होना. ऐसी स्थिति में कोमल भावनाओं को छोड़ समाज की विसंगतियों और जीवन दर्शन पर कवियों का ध्यान जाने लगा. कथा साहित्य में भी आदर्श समाज की स्थापना की कल्पना नहीं की जा रही थी. गोदान में चौराहे पर होरी को मार कर प्रेमचंद ने यही कह कर उपन्यास समाप्त किया कि अब निम्न मध्य वर्ग को संघर्षो से छुटकारा नही.
इन स्थितियों में 1936 में “प्रगतिशील लेखक संघ” की स्थापना हुई. 1942 में इसी संघ ने “अखिल भारतीय लेखक सम्मलेन” का आयोजन किया जिसमे चर्चा हुई कि फुटकर रचनाएँ प्रभाव नही बना पाती इसीलिए कविता का एक संग्रह प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया और इसकी ज़िम्मेदारी सौंपी गई अज्ञेय जी को. साथ ही यह भी निर्णय लिया गया कि इसमे उन्ही कवियों की कविताएँ शामिल की जाए जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हो. यह निर्णय भी लिया गया कि इस संग्रह के प्रकाशन से जो आमदनी होगी वह आगे इसी तरह के प्रकाशन में लगाई जाएगी, वह प्रकाशन चाहे काव्य हो या कुछ और. इस तरह इस पहले संग्रह के साथ ही प्रकाशनों की श्रृंखला की भी योजना बन गई.
पहले संग्रह के लिए अज्ञेय जी ने छह कवि चुने – गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमीचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और सातवे वह स्वयं रहे. लेकिन निर्णय के अनुसार सभी कवि प्रयोगवादी नही रहे, कुछ प्रगतिवादी भी रहे और कुछ रचनाओं में छायावादी लक्षण भी रहे यहां तक कि एक ही कवि की रचनाएँ विभिन्न लक्षणों की रही. पर हाँ, उस समय का प्रगतिशील युग सभी में झलका जिसका कारण उस समय सभी क्षेत्रो में होने वाला परिवर्तन रहा. 1943 में प्रकाशित इस संग्रह का शीर्षक “तार सप्तक” रखा गया. सात कवियों के लिए “सप्तक” कहा गया और “तार” शब्द का प्रयोग सभी कवियों में वैषम्य को देखते हुए इन्हे आपस में जोड़ने और संग्रह की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए प्रकाशनों की एक श्रृंखला बनाने के प्रतीक के रूप में किया गया.
1946 में “नया साहित्य” पत्रिका में पहली बार शमशेर बहादुर सिंह ने “तार सप्तक” की समीक्षा की. उन्होंने समीक्षा का आधार काव्य प्रयोगों को बनाया और सिद्ध किया कि यह नए नही है इनका प्रयोग निराला, पंत, नरेंद्र शर्मा कर चुके है. इस दृष्टि से यह सिद्ध होता है कि अज्ञेय ने “तार सप्तक” का सम्पादन कर काव्य की धारा को अविरल बनाया है. छायावाद तक निर्बाध बहने वाली काव्य सलिला अपने लक्षणों के साथ आगे बढ़ रही है साथ ही युगीन चेतना भी उसमे उपलब्ध है. ब्रिटिश राज्य के दबाव में अपने स्वर्णिम इतिहास को याद करते हुए गिरिजा कुमार माथुर ने लिखा –
“नही रहे वे महावंश अब,
वे कनिष्क से, शिलादित्य से नाम हज़ारों,
किन्तु तक्षशिला, साँची, सारनाथ के मंदिर,
और जीवित स्तम्भ धर्म के बोल रहे है
जिस सीमा पर पहुँच न पाई, हुई पराजित
वहां विजय जब हुई प्यार के दूजे से”
“तार सप्तक” के प्रकाशन के सात वर्ष बाद फिर से सात कवियों को ही चुन कर अज्ञेय जी ने 1951 में “दूसरा सप्तक” संपादित कर प्रकाशित करवाया. जैसा कि निर्णय हुआ था प्रकाशनों की श्रृंखला का. यह दूसरा संग्रह भी कविताओं का ही रहा जिससे लगता है उस दौर में साहित्य में अन्य विधाएँ उभर नही पा रही थी. चूंकि अगले प्रकाशनो की स्पष्ट योजना नही थी इसीसे शीर्षक “दूसर सप्तक” ही रखा गया.
एक सप्तक (तार सप्तक) पढने के बाद यह निश्चित हो गया था कि सभी कवि एक समूह के नही है स्वाभाविक है “दूसरा सप्तक” को भी किसी एक श्रेणी का नही मान कर ही स्वागत किया गया. तार सप्तक के समय (1943) स्वतंत्रता नही मिली थी जबकि दूसरा सप्तक के समय (1951) में तभी मिली स्वतंत्रता से सभी उत्साहित थे –
अब उठो कंधे मिलाकर
फिर नया जीवन बनाओ
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फिर नई यात्रा करो आरम्भ
अब शिशिरांत भी नज़दीक है
हरिनारायण व्यास जी की इन पंक्तियों में आह्वान है. इस समय परिस्थितियां ऎसी ही थी. ऐसे में पहले से चले आ रहे किसी वाद (प्रगतिवाद और प्रयोगवाद) को लेकर आगे बढ़ने के बजाए कवियों ने अपने नए उत्साह को नई रचनावली में ढाला. युगीन चेतना से प्रभावित कवि कवितायेँ रच रहे थे जिसमे नए प्रयोग भी रहे और प्रगति भी, इस तरह रची गई रचनाएँ “नई कविता” रही. इसीसे “दूसरा सप्तक” की रचनाएँ पढ़ कर लगता है कि यह कृति केवल कविता विधा को आगे बढ़ाने के लिए है. लेकिन इसका अर्थ यह नही कि यह स्थिति मान्य हो गई. अज्ञेय जी ने धर्मवीर भारती जी की इस रचना को शामिल कर स्पष्ट किया कि यह साहित्यिक माहौल पसंद नही किया जा रहा –
“मर गई कविता नही सुना तुमने
भूख ने उसकी जवानी तोड़ दी
उस अभागिन की अछूती मांग का सिन्दूर
मर गया बन कर तपेदिक का मरीज़
और विचारों से कही मासूम संताने
माँगने को भीख है मजबूर”
इन सारी स्थितियों को दर्शाने के लिए अज्ञेय जी ने इन सात कवियों का चयन किया – भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश कुमार मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती।
फिर भी इस नई कविता को स्वीकार किया गया और अब कविता के आधार निश्चित होने लगे जिससे अज्ञेय जी अगला संग्रह भी कविताओं का ही ले आए और स्वाभाविक है शीर्षक दिया – “तीसरा सप्तक” जिसका प्रकाशन सात वर्ष बाद 1959 में सात कवियों की चुनी हुई रचनाओं से हुआ. अज्ञेय जी ने इन सात कवियो को चुना – प्रयाग नारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन वात्स्यायन, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण. विजयदेव नारायण साही और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
पिछले दो सप्तको की तरह इन सात कवियों में भी वैषम्य ही है. अब अज्ञेय जी भी यह निश्चित कर चुके थे कि काव्य धारा नए रूप में आगे बढ़ रही है और काव्य में एक नई विधा “नई कविता” स्थापित हो चुकी है. तभी तो “तीसरा सप्तक” की भूमिका में अज्ञेय जी ने लिखा –
“तार सप्तक एक नई प्रवृत्ति का पैरवीकार मांगता था, इससे अधिक विशेष कुछ नही, तीसरा सप्तक तक पहुंचते-पहुंचते प्रवृत्ति की पैरवी अनावश्यक हो गई.”
“तीसरा सप्तक” की कविताएं भी अपने समाज की स्थिति बताती है. बढती निराशा और आधुनिकता की चर्चा तो है ही साथ ही भविष्य के लिए आशा भी है. मदन वात्स्यायन जी की यह पंक्तितयां –
“हारी हुई बाजियों ने जब मुझे परेशान कर रखा था
मुझे तबाह कर रखा था
खाए डाल रही थी मुझे
उस वक़्त मेरे हाथ में एक बार और ताश के पत्तों की तरह
उषे, तुम फिर एक बार आ गई
उषा यानि सुबह जो प्रतीक है आशा का.
इस तरह “नई कविता” को स्थापित करने के साथ-साथ साहित्य के इतिहास में सप्तकों की श्रृंखला भी गौरवान्वित हुई जिसका श्रेय अज्ञेय जी को ही है.
इसके बाद थोड़ा व्यवधान आया. सात वर्ष के अंतराल से सात कवियों की चुनी हुई रचनाओं के प्रकाशन “सप्तक” का अगला पड़ाव समय से नही रहा. लेकिन “तीसरा सप्तक” का दूसरा संस्करण 1961 में और तीसरा संस्करण 1967 में प्रकाशित हुआ. इस बीच 1963 में “तार सप्तक” का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ. बीस वर्ष का अंतराल पूरा होने से “तार सप्तक” को “ऐतिहासिक कृति” माना गया क्योंकि बीस वर्षों की एक पीढी मानी जाती है. बीस वर्ष के अंतराल को पार करने के लिए इसमे हर कवि की एक नई रचना भी रखी गई.
“तार सप्तक” को “ऐतिहासिक कृति” का गौरव मिलने के बाद भी एक बारगी यूं लगा कि काव्य विशेष की श्रृंखला तीन सप्तको में सिमट गई. लेकिन यह भ्रम टूटा बीस वर्ष बाद 1979 में “चौथा सप्तक” के प्रकाशन से और देरी का कारण भी स्पष्ट हो गया. अज्ञेय जी को भी इस बात का अनुभव हो गया था कि प्रकाशनों की यह श्रृंखला केवल साहित्य का संग्रह नहीं अपितु साहित्य में काव्य धारा को आगे ले जाने में सहायक है. “चौथा सप्तक” की भूमिका में अज्ञेय जी ने लिखा –
“काव्य को नई दिशा देने और “कविता क्षेत्र” में “नए आंदोलनों” को खड़ा करने में भी “सप्तकों” का योगदान रहा है.”
इसका प्रमुख आधार यही है कि अज्ञेय जी ने तीनों सप्तकों में चुनी हुई रचनाओं का संकलन किया. तीसरे और चौथे सप्तक के बीच बीस वर्षों के अंतराल का भी यही कारण है कि रचनाओं का चुनाव कठिन हो रहा था. इन बीस वर्षो के अंतराल में परिवेश बदला जिससे कवियों की दृष्टि में परिवर्तन आया जो रचनाओं में छलका। इस दौर में एक महत्वपूर्ण बात हुई – 1975 और आस-पास के समय की स्थितियां, जिसका प्रभाव कवियों की “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर पड़ा. “चौथे सप्तक” की भूमिका में इस बात को स्पष्ट करते हुए अज्ञेय जी ने कहा कि आज के दौर की कविता में “मैं” छा गया है. अवधेश कुमार ने “और उसकी आस्तीन की तह में” शीर्षक कविता में आधुनिक परिवेश की भयावहता में जीवन की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लगाया है –
“और वहां कैक्टस के पीप का समंदर है
और वहां गुम्बद के भीतर एक गूँज आत्महत्या की है
और वहां शेर के पंजे में छुपा एक काँटा है
और वहां बैल का पिचका हुआ कंधा है
और वहां सांप की निकाल ली गई ज़हर की थैली है
और वहां कंकाल को सूंघती हुई निराकार आत्मा है
और वहां भौंचक खड़ा एक परमेश्वर है
और वहां परमेश्वर के पैरों को धर कर जमता सीमेंट है
और वहां सीमेंट में बदलता यह ब्रह्माण्ड है
और वहां आने वाले कल की खबरों वाला एक अखबार है
और इन सब के नीचे दबा जो हस्ताक्षर है
मैं : वह केवल मैं हूँ”
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इन बीस वर्षों की कविता साहित्य से नदारद रही. “चौथा सप्तक” में इस अंतराल के दौर की कवितायेँ भी है. चौथा सप्तक के सात कवि – अवधेश कुमार, राजकुमार कुम्भज, स्वदेश भारती, नन्द किशोर आचार्य, सुमन राजे, श्रीराम शर्मा, राजेन्द्र किशोर
चौथा सप्तक के प्रकाशन के सात वर्ष बाद 1987 में जब पांचवे सप्तक की प्रतीक्षा की जा रही थी तब अज्ञेय जी ने इस संसार से विदा ले ली. छायावाद के बाद काव्य धारा को जिस तरह समेट कर अज्ञेय जी ने सप्तकों के माध्यम से व्यवस्थित किया था अब फिर से वह बिखरने लगी. खेद है कि सप्तकों के कवियों में से किसी ने भी अज्ञेय जी की सप्तक परम्परा को आगे बही बढाया। इस तरह अस्सी के दशक से आज तक काव्य साहित्य बिखरा हुआ है, न व्यवस्थित है और न ही अध्ययन के लिए सुलभ.
सप्तक सितारा अज्ञेय जी को सादर नमन !