Archive for किताब

तीसरा हाथी – रमेश बक्षी

आज ख्यात हिन्दी साहित्यकार रमेश बक्षी की पुण्यतिथि है  …. हिन्दी साहित्य के आधुनिक साहित्यकारों में एक जाना-पहचाना नाम है – रमेश बक्षी  ….  जिनका जन्म 15 अगस्त को वर्ष 1936 में हुआ था। कहानियाँ, नाटक, व्यंग्य लिखने के अलावा पत्रिकाओं का संपादन भी किया और साथ-साथ आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी जुङे रहे। 17 अक्तूबर 1992 को रमेश बक्षी ने इस संसार से विदा ली।

बहुत पहले मैनें रमेश बक्षी का एक नाटक पढ़ा था – तीसरा हाथी। पहली ही बार पढ़ कर यह नाटक मुझे बहुत पसन्द आया था। 1974 में प्रकाशित इस नाटक में आधुनिक जीवन का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक चित्रण बहुत बारीकी से हुआ है। दुबारा फिर कभी इस नाटक को पढ़ने का मुझे अवसर नहीं मिला, पुस्तक भी हाथ नहीं लगी।

लगभग एक वर्ष पहले  मुझे इस नाटक को पढ़ने की फिर से इच्छा हुई। ढूँढने पर भी पुस्तक नहीं मिली। मैने संपर्क किया यहाँ के एक ऐसे बुक स्टॉल से जहाँ सिर्फ हिन्दी की पुस्तकें ही रहती है। विद्यार्थी, शोधार्थी, यहाँ तक कि शौकिया हिन्दी पढ़ने वाले भी यहीं से पुस्तकें लेते है। लेकिन यह नाटक तीसरा हाथी यहाँ भी उपलब्ध नहीं था। मैनें सोचा ऑनलाइन कोशिश करते है, वाणी प्रकाशन, प्रभात प्रकाशन, किताबघर  से जुङी सामग्री में कहीं यह पुस्तक नहीं मिली। मैंने इन सबसे फोन पर संपर्क किया। बताया गया कि हमारे प्रकाशनों में यह पुस्तक नहीं है। फिर दिल्ली का एक नंबर मुझे दिया गया और कहा गया कि यहाँ सभी के प्रकाशन मिल जाएंगे।  यहाँ एक बात मुझे हैरान करने वाली लगी कि प्रकाशक सभी लेखकों की पुस्तकें नहीं रखते है, हर प्रकाशक के अपने कुछ लेखक होते है  …. ख़ैर  …. दिल्ली के उस नंबर पर मैने फोन किया, उन्होनें दो दिन का समय मांगा। दो दिन बाद कहा पुस्तक उपलब्ध नहीं है, आउट ऑफ प्रिंट है। मैंने पूछा किसी तरह से एक प्रति की व्यवस्था हो सकती है, जवाब मिला- नहीं।

मैं हैरान हो गई – इतना अच्छा नाटक – आउट ऑफ प्रिंट  … इस बीच मेरे अनुरोध पर यहाँ के बुक स्टॉल से दिल्ली और शायद अन्य स्थानों पर भी बात की गई और जवाब यही मिला। मुझे लगा कि रमेश बक्षी जी के परिवार से कोई उनकी साहित्यिक सामग्री की देखभाल करता हो और शायद वहाँ से यह पुस्तक मिल सकें, इस संभावना का भी दिल्ली से हुई बातचीत में कोई संतोषजनक जवाब नही मिला।

तो क्या इतना अच्छा नाटक साहित्यिक पटल से ग़ायब ही हो गया ?  क्यों न इस नाटक पर यहाँ कुछ चर्चा की जाए ? हालांकि बहुत पहले, सिर्फ एक ही बार पढ़ा था, उसी के आधार पर कुछ जानकारी यहाँ आप सबके साथ साझा करने का प्रयास कर रही हूँ।

रमेश बक्षी ने इस नाटक का शीर्षक दिया है – तीसरा हाथी  … यह तीसरा हाथी सीमेंट का बना है। एक आलीशान बंगले के ऊपरी भाग में कुछ इस तरह से बना है कि सङक तक फैलाव है। बंगला सङक के मोङ पर है। सङक विस्तार के सिलसिले में नगर प्रशासन ने इस हाथी को तोङने के लिए नोटिस दिया है जबकि बंगले वाले इस हाथी को तुङवाना नहीं चाहते, क्यों तुङवाना नहीं चाहते ?  इसी पर केन्द्रित है यह नाटक।

नाटक की चर्चा से पहले पात्रों का परिचय दे देते है। यह बंगला नगर के एक बहुत सम्मानित व्यक्ति का है जो इस परिवार के मुखिया है जिन्हें सब पापा कहते है। रमेश बक्षी जी की कला देखिए, पूरा नाटक पापा पर केन्द्रित है और पापा सशरीर इस नाटक में है ही नहीं सिर्फ उनका ज़िक्र है। पापा की दो बेटियाँ है शुभा और विभा, दो बेटे है, मोहन जो शुभा से छोटा है और सोहन सबसे छोटा है, सोहन का मित्र है अमित, एक नर्स भी है जो पापा की देखभाल करने आती है।

अब चर्चा करते है नाटक की। इस बंगले को पापा ने बनवाया था। अपनी प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में बंगले पर बालकनी से बाहरी ओर यह सीमेंट का हाथी बनवाया था। जिस तरह राजा महाराजाओं के द्वार पर हाथी उनकी प्रतिष्ठा के चिन्ह होते है उसी तरह। अब पापा की उमर हो गई है, लकवा भी हो गया है जिससे पापा की गतिविधियाँ कम हो गई और इससे उनका रौब-दाब कम हो गया। प्रशासन ने हाथी को तोङने का नोटिस दिया है तो बच्चो को लगता है कि पापा की प्रतिष्ठा कम हो गई है वरना शायद यह नोटिस भी नहीं आता। जब नोटिस आ ही गया है तो इस बात को यहीं समाप्त करने का प्रयास करें। यही बात शुभा सबसे कहती है, विशेष रूप से मोहन से। लेकिन किसी को इस बात में कोई रूचि नहीं, हाथी टूटता है तो टूट जाए। वे शुभा की यह बात समझना नहीं चाहते कि हाथी टूटने का अर्थ है घर की प्रतिष्ठा का समाप्त हो जाना। शुभ किसी भी कीमत पर यह रोकना चाहती है। वह चाहती है कि कम से कम पापा का नाम लेकर किसी रसूखवाले को फोन करके भी इस मामले को निपटाने की कोशिश की जा सकती है, पर बाकियों को न घर में दिलचस्पी है न घर की प्रतिष्ठा में। कोई इस मामले में गंभीरता  से कुछ नहीं करता, सब टालमटोल करते रहते है,  नतीजा  … हाथी तोङ दिया जाता है यानि समाज में परिवार का सामाजिक अस्तित्व ख़त्म। यही रमेक्ष बक्षी ने नाटक समाप्त किया है। पूरी बात हम पात्रों के सहारे समझ पाते है।

पापा ने सबको अनुशासन में रखा था। अनुशासन इस मायने में रहा कि यहाँ मत जाओ, यह मत करों, वहाँ मत बैठो। एक सीन है जिसमें सब नए साल की ख़ुशियाँ मना रहे है, संवाद है –
पापा होते तो कहते, नया साल है तो कैलेण्डर बदल दो इसमें इतना शोर मचाने की क्या ज़रूरत है
साथ ही आधुनिक जीवन शैली देने से सब इतने आधुनिक हो गए कि संस्कार का झीना पर्दा भी नहीं रह गया। इसी को मनोवैज्ञानिक शैली में रमेश बक्षी जी ने प्रस्तुत किया जो इन पात्रों के चरित्र चित्रण से स्पष्ट होगा। एक-एक कर इन पात्रों की चर्चा करते है।

पापा को लकवा मार गया है। नाटक में कभी पापा को दिखाया नहीं गया है और न ही उनका कोई संवाद है। यही बताया गया है कि पापा भीतर कमरे में रहते है। हॉल में एक आराम कुर्सी है। जब पापा अच्छे थे तब इस आराम कुर्सी पर बैठा करते थे। अब पापा के सम्मान में इस कुर्सी पर कोई नहीं बैठता। इतना ही नहीं आते-जाते कुर्सी को धक्का लग जाए तो सॉरी पापा कहा जाता है। एक स्थिति ऐसी भी है कि ग़लती से किसी ने आराम कुर्सी पर कपङे रख दिए , संवाद है –
अब इस कुर्सी की यह इज़्ज़त रह गई है कि इस पर कपङे चुन कर रखे जाने लगे है
सिर्फ ऐसे ही सम्मान दर्शाया गया, वास्तव में पापा के लिए सम्मान होता तो हाथी तुङवाने से रोकने के लिेए पूरी कोशिश करते।

ख़ैर  … चर्चा करते है शुभा की।  शुभा सबसे बङी है और पूरे घर की ज़िम्मेदारी अब उसी पर है। वह सबको अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास दिलाना चाहती है पर हाँ-हूँ के अलावा कोई उसकी सुनता ही नहीं। शुभा को कभी-कभी हिस्टीरिया के दौरे पङते है।  इसके लिए रमेक्ष बक्षी जी ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत बारीक चित्रण किया है। एक बङा सीन भी  है। जब भी दौरा पङता है शुभा बङबङाने लगती है, अपनी साङी अस्त-व्यस्त कर इधर-उधर दौङने लगती है। उसे ऐसा लगता है जैसे उसका बलात्कार करने की कोशिश की जा रही है और बलात्कारी के रूप में वह अपने पापा को ही देखती है। यहाँ रमेश बक्षी जी कहना चाहते है कि आधुनिक समाज में बच्चे बङे होने पर माता-पिता उनके साथ दोस्त की तरह रहते है जिसका असर यह हो रहा है कि माता-पिता और बच्चो के बीच की सीमा कम होती जा रही है। संस्कार भी ऐसे बदल रहे है कि दोस्ती के सामने रिश्तों की मर्यादा कम होती जा रही है। शुभा को पापा दोस्त की तरह लगते है। वह पापा के प्रति आकर्षित है। यह मनोवैज्ञानिक आधार का विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण है।  हालांकि पापा ने अनुशासन बनाए रखा था। यह आधुनिक जीवन शैली अपनाने के बावजूद दो पीढ़ियों की सोच का अंतर है।

शुभा से छोटा है मोहन जो घर का बङा बेटा है पर मोहन को इस बात का अहसास नहीं जबकि शुभा ने कई बार मोहन को यह अहसास दिलाने की कोशिश की। मोहन ने जैसे-तैसे अपनी पढ़ाई पूरी की। अब वह न कोई नौकरी करता है न कोई काम। वह शुरू से ही ऐसा ही रहा। समाज में घर की प्रतिष्ठा थी, धन-ऐश्वर्य भी था जिससे वह लापरवाह सा जीवन जीने लगा, बुरी संगत का भी असर रहा।। इन्हीं कारणों से अपने पापा से वह एक बार बहुत पिट भी चुका जिस पर भाई-बहन आज भी उसे ताना देते रहते है। इन सब के मनोवैज्ञानिक असर से अब  वह दबाव में भी रहने लगा। शुभा की तरह मोहन में भी यौन ग्रन्थि है जो अपना असर दिखाती है। पापा की देखभाल के लिए आने वाली नर्स के प्रति मोहन आकर्षित है। रोज़ सुबह होते ही उसका इंतेज़ार करने लगता है पर उससे बात करने का साहस नहीं है। जब वह आती तो उसका अभिवादन करता है और अक्सर एक ही बात कहता है –
आज आप नहा कर आई हुई लग रही है
यह नहाना सामान्य नहाना नहीं है, यह लङकियों द्वारा माहावारी के बाद किया जाने वाला ऋतु स्नान है। नर्स इस बात को समझती है और मोहन के चरित्र को भी, वह कभी इस बात पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देती और भीतर पापा के पास चली जाती है।

शुभा और मोहन के ऐसे व्यवहार को मनोवैज्ञानिक रूप से समझे तो  यह ऐसी यौन इच्छाएं है जो प्रत्यक्ष में पूरी नहीं हो सकती जिससे मन में दबी रहती है और अलग तरीके से बाहर आती है। इस तरह आधुनिक जीवन शैली जीते कुछ युवाओं की यौन कुंठाओँ का शुभा और मोहन के माध्यम से बहुत खुल कर चित्रण किया है रमेश बक्षी जी ने। लेकिन छोटे दोनों, विभा और सोहन के चरित्र में यह बात नहीं। वास्तव में ये दोनों दिशाहीन है।

विभा को पापा के अनुशासन से नाराज़गी रही और पापा की बीमारी से वह आज़ाद महसूस कर रही है। तेज़ तर्रार ज़बान, बात-बात में झल्लाना उसकी आदत है। कोई खास बात उसके चरित्र में नहीं है।

सबसे छोटा है सोहन, एकदम बेफिक्र। यूनिवर्सिटि का विद्यार्थी है। विश्वविद्यालय जाता है पर पढ़ता नहीं। पढ़ाई को छोङ अन्य गतिविधियों में अधिक दिलचस्पी है, खासकर शरारती गतिविधियों में। किसी न किसी बात पर कक्षाओं का बहिष्कार कराना, हङताल करवाना, विद्यार्थियों को भङकाना। इन सबमें उसका मित्र अमित बराबर शामिल रहता है। इस समय भी किसी बात पर आन्दोलन सा खङा कर दिया है। वाइस चांसलर के खिलाफ प्रदर्शन की तैयारी हो रही है। घर पर ही पोस्टर तैयार करने, नारे बनाने में विभा भी मदद कर रही है। सोहन, विभा, अमित तीनों इसी काम में व्यस्त है। शुभा कह रही है घर की स्थिति ठीक नहीं, पापा बीमार है, हाथी तोङने के लिए नोटिस आ चुका है पर सोहन का इन सब बातों से कोई संबंध नहीं।

आख़िर कर्मचारी आ गए। बंगले में ऊपर चढ़ गए और सीमेंट का हाथी तोङने लगे। हाथी टूटने की ठक-ठक आवाज़ और चारों भाई-बहन पापा के पास बैठे ज़ोर-ज़ोर से रो रहे है। भीतर से रोने की आवाज़े और बाहर हाथी टूटने की ठक-ठक से नाटक समाप्त हुआ। यह हाथी क्या टूटा इस परिवार का सब कुछ टूट गया, हाथी टूटने पर ही चारों को इस बात का अहसास हुआ और चारों ज़ोर से रोने लगे वरना वे आश्वस्त थे कि किसी तरह मामला निपट जाएगा।  पापा के पास बैठ कर रोते रहे कि पापा ने जो जीवन उन्हें दिया था वह समाप्त हो गया जिसकी उन्हें आशा नहीं थी। पापा का व्यक्तित्व एक हाथी की तरह ही था, रौबदार, शानदार, समाज में पापा की बनाई हुई प्रतिष्ठा दूसरे हाथी की तरह थी और इसे आगे लम्बे समय तक बनाए रखने का प्रतीक था बंगले पर पापा द्वारा बनवाया गया सीमेंट का तीसरा हाथी जो समाज में इस परिवार की प्रतिष्ठा कायम रखता था जिसके टूटने से परिवार का सामाजिक अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

व्यक्ति का दंभ, समाज में बनी प्रतिष्ठा से बच्चो की बेफिक्री ऐसी कि वे आगे जीवन में कुछ करने योग्य नहीं रह जाते है जिससे आगे प्रतिष्ठा बनाए रखना कठिन हो जाता है, एक बार प्रतिष्ठा को धक्का लगा तो समाज भी किनारा कर देता है। इन सब बातों का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चित्रण करता बेहतरीन नाटक जो न सिर्फ पढ़ने बल्कि रंगमंच पर प्रस्तुति की दृष्टि से भी उत्तम है।

टिप्पणी करे

अनउपलब्ध कृतियाँ

पिछली सदी के आरंभिक तीन दशकों में हिंदी साहित्य में लिखी गई कुछ पुस्तके उपलब्ध नही है , नीचे सूची दी जा रही है , अगर किसी को कोई जानकारी हो तो बताए –

वर्ष 1918 – पुस्तक का नाम – अभिमन्यु का आत्मदान –  लेखक – कमला प्रसाद वर्मा
1921 – कंस वध – श्यामलाल पाठक
1924 – कृष्ण विलास – सीताराम सिंह
1924 – वियोगिनी सीता – काशी प्रसाद दुबे
1924 – वीरांगना तारा – सुरेन्द्र नाथ तिवारी
1925 – महाभारत – 22 भागो में – श्रीलाल
1925 – श्री सीताराम चरितायन – सीतल सिंह गहरवार
1925 – सती पद्मिनी – ठाकुर श्री नाथ सिंह
1928 – हकीकत राय – गदाधर सिंह भृगुवंशी
1928 – त्रेता के दो वीर – श्यामनारायण पाण्डेय
1928 – परम भक्त ध्रुव और
1936 – परम भक्त प्रह्लाद –  राम चंद्र शर्मा विद्यार्थी
1929 – रामचरित चिंतामणि – उपाध्याय
1929 – परिमल में संकलित – पंचवटी प्रसंग – सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
1931 – सुकन्या चरित – – उदित नारायण दास
1932 – अरगल की रानी – रघुनन्दन प्रसाद “‘अटल”‘
1934 – महारानी पद्मिनी – भगवती प्रसाद सिंह “‘वीरेन्द्र”‘
1936 – श्री बसंत कृष्णायन – बसंत राम
1936 – शबरी – वचनेश मित्र
1937 – श्री रामचन्द्रोदय काव्य – अयोध्या के राजकवि रामनाथ “‘जोतिसी”‘

टिप्पणी करे

गुरूदेव की गीतांजलि

आज गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर का जन्मदिवस हैं।

9 मई 1861 को जन्मे गुरूदेव के जन्म को 150 वर्ष हो चुके हैं और गुरूदेव की कृति गीतांजलि को नोबुल पुरस्कार मिले 100 वर्ष हो चुके है.

विश्व स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है – नोबुल पुरस्कार. वर्ष 1901 से साहित्य जगत के लिए भी यह पुरस्कार दिया जाने लगा और बारह वर्ष के बाद 1913 में पहली बार एक भारतीय को इस पुरस्कार के लिए चुना गया।

गीतांजलि मूल रूप से बंगला भाषा में लिखी गई और इसके अंग्रेज़ी संस्करण को नोबुल पुरस्कार के लिए चुना गया.  अंग्रेज़ी,  जो पाश्चात्य देशों के साहित्य की भाषा है और उस समय भारत में अंग्रेज़ी शासन के विरूद्ध संधर्ष चल रहा था. ऐसे में इस पुरस्कार को राजनीतिक चाल भी माना गया पर भारतीय अपनी बात उन तक पहुँचाने के लिए उन्हीं की भाषा अंग्रेज़ी का प्रयोग भी करते थे.

गीतांजलि कविताओं का संग्रह है. कविताएं न तो बहुत बङी है और न ही बहुत छोटी लेकिन एक-एक कविता गागर में सागर है. प्रत्येक कविता एक संदेश देती है. इसका रचनाकाल एक ऐसा समय है जब विश्व स्तर पर शान्ति का आह्वान किया जा रहा था. विश्व युद्ध के बाद सभी देशों में भय व्याप्त था. भारत में तो स्वाधीनता का संघर्ष छिङ गया था. ऐसे में भारतीय साहित्यकार चाहते थे कि अपने स्वर्णिम अतीत को खंगाल कर ऐसे रत्न निकाले जिससे सद् भावना का आलोक फैले. इसी क्रम में साहित्य जगत में एक ओर तो पौराणिक चरित्रों और गौरवशाली इतिहास के पन्नों से सामग्री लेकर साहित्य रचा जा रहा था तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति और आध्यात्म से प्रेरणा लेकर शान्ति के प्रयास किए जा रहे थे और इसी श्रेणी में रची गई गीतांजलि. …. पहली ही कविता में अखण्ड विश्व के लिए कवि ने प्रभु से प्रार्थना की –

जहाँ विश्व न टूटे खण्डों में संकरी घरेलु दीवारों से

जहां मन में भय न हो तथा विचार और क्रिया में समन्वय रहे, प्रभु मेरा देश उस स्वर्ग में जागे. तात्पर्य कि अभी हमारा देश गहरी नींद में सोया है या कहे कि अभी हम जागृत नहीं है, सक्रिय नहीं है, बन्दी है. बन्दी शार्षक रचना में कवि ने कैदी से पूछा –

किसने तुम्हें कैद किया ?  उसने कहा, मेरे मालिक ने.

मालिक है शक्ति और ऐश्वर्य. इस तरह चारों ओर मनुष्य ने एक दीवार सी बना ली है जिससे प्रकाश भीतर आ ही नहीं पा रहा. इस कारागार में भी वह स्वतंत्र बैठा नहीं है अपितु बेङियों में जकङा है. बेङियाँ खुद मानव है. मानव जब अपने आप का अधिक ध्यान रखता जाता है तो इसका अर्थ होता है कि बेङियां उतनी ही दृढ़ होती जा रही है जिससे वह कारागार से मुक्त नहीं हो पाता और प्रकाश से भी उतना ही दूर हो जाता है. इससे अंधकार ही साथी बन गया है. जब वह द्वार खोलता है तो कुछ नहीं देख पाता है. वह हैरान है कि रास्ते कहाँ खो गए ?  रास्ते तलाशने के लिए कहाँ है प्रकाश ?  इसका उत्तर कवि ने प्रेम का दिया कविता में दिया कि दिया तो है पर जोत नहीं. दिये को इच्छा की जोत से जलाओ. परन्तु कभी – कभी इच्छा होने पर भी हम आगे नहीं बढ़ पाते है –

मैं अकेला निकल आया अपने पथ पर आगे बढ़ने
पर यह कौन है जो सुनसान अँधेरे में मेरा पीछा कर रहा है
मैं किनारे हटा उसे अनदेखा करने पर उससे बच न पाया

वह धूल उङाता चलता है. मेरे कहे गए शब्दों को ज़ोर से दुहराता है. इस तरह मैं उसके साथ प्रभु के दरबार में नहीं जा पाऊँगा. यह पीछा करने वाला समाज है जो उसे मार्ग से विचलित कर रहा है और जिसके साथ वह प्रभु के पास भी नहीं जा सकता. घर तक यात्रा में गुरूदेव ने यही तो कहा है कि हम अपनी जीवन यात्रा में प्रभु से बहुत दूर निकल आए है. यात्री को हर द्वार पर दस्तक देनी होती है और अंत तक पहुँचने के लिए कई पङावों से गुज़रना होता है. मन बार – बार कहता है – कहाँ है प्रभु ?  और आश्वस्ति का स्वर सुनाई देता है – मैं हूँ !  हर समय प्रत्येक स्थान पर प्रभु होते है. खामोश क़दम कविता में यही तो पूछा गया –

क्या तुमने उसके खामोश क़दम नहीं सुने
वो आते, आते है, हमेशा आते है
हर पल और हर युग
हर दिन और हर रात
वो आते, आते है, हमेशा आते है

प्रभु की उपस्थिति को अंकित करने के लिए कवि ने प्रकृतिक प्रतिमानों का भी प्रयोग किया है. गुज़रती हवा कविता की पंक्तियाँ प्रस्तुत है –

पत्तियों पर नाचता सुनहरा प्रकाश
सुस्त पङे बादलों का आकाश में विचरना
यह गुज़रती हवा मेरे माथे पर ठंडक छोङती है
सुबह के प्रकाश ने भीगो दी मेरी आँखें – वही मेरे मन के लिए उसका संदेश है

कण – कण में व्याप्त है प्रभु –

वह वहाँ है जहाँ कठोर धरती खोदी जा रही है
वह वहाँ है जहाँ रास्ता बनाने वाले पत्थर तोङ रहे है
वह उनके साथ है जो धूप और बारिश में है

प्रभु का हाथ सदैव हम पर बना है इसीलिए अपने शरीर को हमेशा शुद्ध रखो. शुद्धता रचना में गुरूदेव ने माना है कि वह सत् की रोशनी को मन में बिखेरने की प्रभु की कला को जानते है इसीलिए असत् विचारों को मन से दूर रखो और फूलों को मन में बसाओ जिससे कुछ करने की इच्छा होती है और कार्यों द्वारा सुगन्ध फैलती है.  इस सत् कार्य के लिए कवि बार – बार जन्म लेना चाहता है. नन्ही बाँसुरी कविता में उसने प्रभु से प्रर्थना की है – प्रभु मुझे अंतहीन बना दो ताकि हर बार नए जीवन में छोटी सी बाँसुरी थामे मैं अमर गीतों की तान छेङ दूँ क्योंकि कोई तो चाहिए जो सबको प्रभु तक जाने का मार्ग बताए.  कवि ने अपने आपको आवारा बादल माना है –

निरूद्येश्य आकाश में घूम रहा हूँ, ओ मेरे सूरज !  सदा चमकने वाले
उसके स्पर्श से अभी मैं पिघला नहीं हूँ

यानि अभी तो हमें जीवन के खेल में रमना है फिर प्रभु की इच्छा से –

एक दिन मैं पिघलूँगा और अंधकार में विलीन हो जाऊँगा

हम सभी को चाहिए कि हमेशा प्रभु को अपने पास अनुभव करें. कमल शीर्षक कविता में –

उस दिन जब कमल खिला, आह !  मेरा मन भटक गया था
और मैं अजान रहा मेरी टोकरी खाली रही

मैनें सुगन्ध अनुभव की पर पता नहीं कि यह मेरे इतने पास मेरे मन में ही है. यह रहस्यवादी भाव बरबस कबीर की इन पंक्तियों की याद दिलाते है – कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढ़ूंढ़े वन माही

तभी तो कवि कहता है कि प्रभु अनुकंपा की हर वस्तु समेट लो. इस छोटे से फूल को तुरन्त तोङ लो देर होने पर यह मिट्टी में बिखर जाएगें क्योंकि हम तो प्रभु के गले का हार नहीं बन पाएगें पर इन फूलों पर तो ईश्वर का स्पर्श है. समय रहते इसे तोङ कर प्रभु चरणों में अर्पित कर दो. हमारे पास जो भी है प्रभु की देन है इसीलिए तेरा तुझको अर्पण के भाव से जियो.

मूर्ख शीर्षक रचना में कहा कि अपनी कमज़ोरियों के साथ प्रभु के द्वार पर जाओ वही तुम्हारी कमज़ोरियाँ हर लेंगे. हम जीवन की नौका में बैठे हैं जबकि हमें इससे उतरना चाहिए. वसन्त आकर बीत जाता है. पत्ते पीले होकर झङने लगते है. हम नौका में बैठे रह जाते है और दूसरी ओर से आती आवाज़ सुन नहीं पाते. मौन गीत रचना में यही स्थिति बताई है कि जो गीत हम गाने आए है वो बिन गाए रह गए. समय वाद्यों के सुर मिलाने में चला जा रहा है, शब्द जम नहीं रहे, प्रभु मिलन की इच्छा में प्रतीक्षा करते समय बीत रहा है. फिर भी हमें धैर्य नहीं छोङना है.

धैर्य शीर्षक रचना में कहा कि रात बीतेगी और पक्षियों के कलरव में प्रभु की वाणी सुनाई देगी. इसीलिए अगर रात हो भी जाए तो प्रभु पर विश्वास कर चैन से सोना चाहिए जिससे अगली सुबह तरोताज़ा होकर जागे. तात्पर्य कठिनाई में भी प्रभु पर विश्वास बना रहे. जिस तरह दिन बीत जाता है उसी तरह कठिनाई का दौर भी समाप्त हो जाता है. कठिनाई के समय की उपमा कवि ने दिवस से दी है. जिस तरह दिन भर शोरगुल रहता है उसी तरह इस दौर में भी कोलाहल रहता है. जब दिन समाप्त होता है तब हवा थक जाती है, पक्षियों के कलरव बन्द हो जाते है. नींद की चादर सबको ढ़क लेती है तब पथिक का झोला भी खाली होने लगता है उसके धूल से सने कपङे फटने लगते है तब प्रभु की छाया में उसे एक फूल की तरह जीवनदान मिलता है. जीवन पाकर उसे सफल बनाने के लिए हमें शक्ति भी मांगनी चाहिए.

मुझे शक्ति दो कविता में शक्ति पाने की याचना है जिससे हम अपनी खुशी और दुःख दोनों झेल सकें. शक्तिहीन की सेवा कर सकें और अंत में उसी को समर्पित कर सकें जिससे शक्ति पाई हैं. ….

यह एक छोटा सा प्रयास था गीतांजलि के संदेश को आप तक पहुँचाने का ….

गुरूदेव को सादर नमन !

टिप्पणी करे

Older Posts »