हिन्दी मैं बाल साहित्य की चर्चा होते ही तुरन्त एक ही नाम सामने आता है – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना …….
न केवल साहित्य रचा बल्कि निरन्तर पढ़ने के लिए पत्रिकाएं भी निकाली, लोकप्रिय पत्रिका पराग को कौन भूल सकता है ….. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि केवल बच्चों के लिए ही लिखा …… साहित्यकार, संपादक होने के साथ-साथ सर्वेश्वर दयाल जी ने आकाशवाणी में भी अपनी सेवाएं दी. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कवि के रूप में उभर कर आए अज्ञेय जी द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के माध्यम से जिसका प्रकाशन 1959 में हुआ. जैसा कि चालीस के दशक से चला आ रहा था चुने हुए सात कवियों की चुनी हुई रचनाओं का प्रकाशन सप्तको द्वारा और तार सप्तक, दूसरा सप्तक की अगली कडी रही तीसरा सप्तक जिसके सात कवियों में से अंतिम कवि है – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ….
इस समय तक उनकी कुछ रचनाएं प्रकाशित हो चुकी थी पर अधिक प्रकाश में नही आए थे, लेकिन कविता के क्षेत्र में उनकी पकड़ यहीं से स्पष्ट हो रही थी. तीसरा सप्तक में अपने वक्तव्य में उन्होंने पिछले कवियों के सम्बन्ध में कहा कि पुराने कवियों ने जीवन के संघर्ष को विस्मृत नही किया और अपनी प्रतिभा का रचनात्मक उपयोग करते हुए बदलते युग और मूल्यों को अपनाने का प्रयत्न किया। साथ ही तत्कालीन कविता में जीवन दर्शन न होने की भी शिकायत की. कविता के बारे में अपने विचार बताते हुए कहा –
“जो सत्य है उसे चुपचाप अपनाए रखने भर से काम नही चलेगा बल्कि जो असत्य है उसका विरोध करना पडेगा और मुँह खोल कर कहना पडेगा कि वह गलत है ”
1961 और 1967 में दूसरा और तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ जिससे साठ के दशक के हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों में उभरे – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना …. सत्य के आग्रह से सर्वेश्वर दयाल जी की रचनाओं में यथार्थ के चित्र है जिनमे न कही कोरी भावुकता है और न कही आदर्श। जहां यथार्थ हो वहाँ व्यंग्य होना स्वाभाविक है. व्यंग्य की सहायता से ही तो यथार्थ की भयावहता स्पष्ट होती है. सौन्दर्य बोध रचना में कहा कि आज विवशता की भी पहचान नही रही –
” आज की दुनिया में / विवशता, / भूख, / मृत्यु / सब सजाने के बाद ही / पहचानी जा सकती है “
क्योंकि आज भी कुतूहल के समक्ष अश्रुओं का कोई मूल्य नही –
” ओछी नही है दुनिया / मैं फिर कहता हूँ / महज़ उसका / सौंदर्यबोध बढ़ गया है “
ऎसी रचनाएं अधिक नही है. वास्तविकता का खुला चित्रण अधिक हुआ है. कलाकार और सिपाही रचना में दोनों की समानता की चर्चा की कि दोनों ही –
” नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों में / फटेहाल, भूखे-प्यासे / टकराते फिरते “
लेकिन विभिन्न उद्येश्यों के साथ, एक –
” सत्य, शिव, सुन्दर की खोज में / शिलाएं, चट्टाने, पर्वत काट-काट कर / मूर्तियां, मंदिर और गुफाएं बनाते थे “
जबकि दूसरे –
” शिलाएं, चट्टाने, पर्वत काट-काट कर / रसद, हथियार, एम्बुलेंस, मुर्दागाड़ियों के लिए / सड़के बनाते है “
लगभग हर कवि की तरह सर्वेश्वर दयाल जी ने भी अपनी रचनाओं में प्रेम की अभिव्यक्ति दी है. कहीं स्पष्ट न कह कर प्रेम की व्यंजकता प्रकृति के माध्यम से की है –
” इन कंटील जंगली झाड़ियों को कस कर / देखो बाड़े से कोई बाँध गया है / क्या कोई यहाँ रहा था ? “
साथ ही भारतीय परम्परा के चित्रण सहित विवाहित प्रेम का भी चित्रण किया है सुहागिन का गीत रचना में –
” पगडंडी पर जला कुल दीप घर आने दो / चरणामृत जा कर ठाकुर की लाने दो / यह दबी-दबी सांस उदासी का आलम / मैं बहुत अनमनी चले नही जाना बालम “
अपने से संबंधित और अपने कवि कर्म के प्रति उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में भी कुछ पंक्तियाँ लिखी है –
” मैं – महज़ – मैं / एक सूना प्लेटफार्म “
मैं पर अधिक बल देने के लिए ( – ) चिन्ह का उपयोग किया। – अपने उत्तरदायित्व को इन शब्दों में कम्पित किया –
” संचित कर सके शक्ति की समिधाएं
जो जल कर अग्नि को भी
गंध ज्वार बना दे
तो मैंने अपना कवि कर्म पूरा किया “
सर्वेश्वर दयाल जी की रचनाओं पर कुछ और चर्चा फिर कभी ….
हिन्दी जगत के गौरवशाली साहित्य्कार को सादर नमन !
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