आज हिन्दी जगत के सुविख्यात कथाकार प्रेमचंद का जन्म दिन है। प्रेमचंद ने सामाजिक स्थितियों पर ही अधिक लिखा लेकिन अन्य धरातल पर भी उनकी कुछ रचनाएं है। ऎसी ही एक कहानी है जो ऐतिहासिक धरातल पर लिखी गई है – शतरंज के खिलाडी
वाजिद अली शाह का समय, उस समय का समाज, अंग्रेजो का उस पर नियन्त्रण और वाजिद अली शाह की अंग्रेज़ फौज द्वारा गिरफ्तारी, इन सारी बातो को इस कहानी में समेटा गया है। प्रेमचन्द लिखते है –
” राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फरियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची आती थी और वह विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी। अंग्रेज़ कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी वसूल न होता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे, किसी के कानों पर जूँ न रेंगती थी।”
ऐसे में दो रईस मीर साहब और मिर्ज़ा साहब अपने शौक़ शतरंज के खेल में डूबे रहते थे –
” इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी। कम्पनी की फ़ौजें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं। शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को लेकर देहातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इनकी ज़रा भी फ़िक्र न थी। वे घर से आते तो गलियों में होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, जो बेकार में पकड़ जायँ। हजारों रुपये सालाना की जागीर मुफ्त ही हजम करना चाहते थे।”
एक की पत्नी घर में खेल नही चाहती थी और दूसरे की पत्नी उन्हें घर में रहने देना नही चाहती थी, नतीजा दोनों दूर सुनसान जगह जा कर रोज़ खेला करते थे, तब भी गंभीर नही हुए जब सामने से अंग्रेज़ फौज गुज़री और बाद में वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर ले गई –
” दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गये। अबकी मिरज़ा जी की बाज़ी कमजोर थी। चार का गजर बज ही रहा था कि फ़ौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली पकड़ लिये गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिये जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी खून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी चला जाता था, और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी।”
ऐसा भी नही कि दोनों खिलाडियो को अपने राज्य की चिंता ही नहीं, उन्हें बहुत दुःख होता है यह देख कर कि बादशाह बंदी बना लिए गए पर शतरंज में उन्हें सबसे अधिक रुचि है, यह संवाद देखिए –
” मिरज़ा- खुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह !
मीर- पहले अपने बादशाह को तो बचाइए फिर नवाब साहब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और यह मात ! लाना हाथ !
बादशाह को लिये हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिरज़ा ने फिर बाज़ी बिछा दी। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा- आइए, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें। लेकिन मिरज़ा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो रहे थे।”
दोनों की शतरंज में इतनी रुचि कि उन्हें यह भी ध्यान नही कि बादशाह की गिरफ्तारी के बाद राज्य की क्या स्थिति होगी। खेल के अतिरिक्त उन्हें कुछ नही चाहिए, शतरंज के वजीर को बचाने के लिए अपने प्राण दे सकते है पर अपना राज्य बचाने के लिए कुछ भी करने में रुचि नही। प्रेमचंद ने कहानी का समापन किया है इन शब्दों में –
” दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल लीं। नवाबी जमाना था; सभी तलवार, पेशकब्ज, कटार वगैरह बाँधते थे। दोनों विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था- बादशाह के लिए, बादशाहत के लिए क्यों मरें; पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों जख्म खाकर गिरे, और दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर जानें दे दीं। अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्हीं दोनों प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिये।”
बहुत हद तक एक सच्ची तस्वीर उभरती है उस दौर की इस कहानी में। इस कहानी पर सत्यजीत रे ने इसी नाम से फिल्म बनाई जिसमे मिर्ज़ा साहब और मीर साहब की भूमिकाएं की संजीव कुमार और सईद जाफरी ने और बेगम की भूमिका की शबाना आज़मी ने। वाजिद अली शाह की भूमिका में रहे अमजद खान…..
हिन्दी के गौरवशाली साहित्यकार को सादर नमन !
myhilltour said
Very well written. Heart became happy for this post